नेहरू परिवार के गढ़ लखनऊ पर बीजेपी ने कैसे किया कब्जा? 1984 के बाद से अब तक ‘हाथ’ खाली

देश के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सोमवार को रोड शो के बाद लखनऊ से नामांकन किया. पिछली बार भी वह यहां से लोकसभा चुनाव लड़े थे और शत्रुघ्न सिन्हा की पत्नी और समाजवादी पार्टी की प्रत्याशी पूनम सिन्हा को करीब साढ़े तीन लाख वोटों से हराकर जीते थे. इससे पहले 2014 में भी राजनाथ सिंह ने कांग्रेस की रीता बहुगुणा जोशी को 2 लाख 72 हजार के भारी अंतर से हराया था. राजनाथ सिंह से पहले लखनऊ सीट पर 2009 में लालजी टंडन और 1991 से 2004 तक अटल बिहारी वाजपेयी यहां से सांसद रहे.

भले ही आज लखनऊ को बीजेपी के लिए सुरक्षित सीट माना जाता है, लेकिन एक समय इस सीट को पंडित जवाहर लाल नेहरू के परिवार का गढ़ माना जाता था. लखनऊ से कांग्रेस के टिकट से विजया लक्ष्मी, श्योराजवती नेहरू और शीला कौल सांसद चुनी गईं, जो कि नेहरू परिवार से हैं. हालांकि ऐसा कहना भी सही नहीं होगा कि इन महिलाओं के जीतने का कारण पंडित नेहरू और कांग्रेस की लोकप्रियता ही थी, बल्कि यह तीनों महिलाएं स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक थीं. इनको देश में जाति और पिता की विरासत सिर्फ बेटे को ही क्यों सौंपी जाए, इसके खिलाफ आवाज उठाने के लिए भी जाना जाता था.

विजया लक्ष्मी पंडित:
लखनऊ की सीट पर पहली बार लोकसभा का प्रतिनिधि एक प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और नेहरू की बहन विजया लक्ष्मी ने किया था. वह अपने भाई की तरह उच्च शिक्षा हासिल की थीं और उनका दृष्टिकोण अंतर्राष्ट्रीयवादी था. स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका के लिए उन्होंने तीन बार जेल की सजा भी काटी थीं. जब भारत को आजादी मिली तो विजया लक्ष्मी को सोवियत संघ में देश की पहली राजदूत के रूप में चुना गया और 1949 में उन्हें अमेरिका में राजदूत नियुक्त किया गया.

1951 में पहले आम चुनाव के दौरान उन्हें लखनऊ में कांग्रेस के टिकट पर 70 फीसदी से अधिक वोट हासिल हुए. उन्होंने जल्द ही इस्तीफा दे दिया और वह संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली अध्यक्ष बनीं. नेहरू के निधन के बाद उन्होंने फूलपुर में अपने भाई की सीट से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. इमरजेंसी के दौरान उनका अपनी भतीजी इंदिरा गांधी के साथ मतभेद हुआ और उन्होंने लोकतंत्र को बहाल करने के लिए लड़ाई लड़ी.

श्योराजवती नेहरू:
विजया लक्ष्मी पंडित के इस्तीफे के बाद 1955 के उपचुनाव में कांग्रेस ने श्योराजवती नेहरू को लखनऊ से मैदान में उतारा. अलीगढ़ कॉलेज में शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लिया और भारत छोड़ो जैसे आंदोलनों में अपनी भूमिका के लिए जेल की सजा भी काटी. वह हरिजन सहायक संघ, महिला सहायक संघ, अखिल भारतीय महिला संघ की सदस्य और भारत सेवक समाज की अध्यक्ष थीं. उन्होंने उपचुनाव में 41 फीसदी से अधिक वोट हासिल करके लखनऊ से दूसरी महिला सांसद बनने का गौरव हासिल किया. इसके बाद 1962 तक यहां से कांग्रेस के उम्मीदवार ही जीतकर संसद पहुंचते रहे. 1967 में उर्दू के मशहूर कवि आनंद नारायण मुल्ला ने यहां स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर जीत दर्ज की थी.

शीला कौल:
हालांकि 1971 में जवाहरलाल नेहरू की भाभी शीला कौल ने इस सीट पर कांग्रेस का परचम लहरा दिया और भारी अंतर से जीत हासिल की. कौल को 71 फीसदी से अधिक वोट मिले और वह 1971, 1980 और 1984 में तीन बार लखनऊ से सांसद चुनी गई. आपातकाल के बाद हुए 1977 के चुनावों में कौल को हार का सामना करना पड़ा, हालांकि 1980 में नए चुनाव हुए और शीला कौल ने लगभग 48 फीसदी के वोट शेयर के साथ फिर से जीत हासिल की. वह 1984 में 55 फीसदी से अधिक मतों के लखनऊ सीट से तीसरी बार चुनी गईं. करण सिंह (1999) और रीता बहुगुणा जोशी (2009 और 2014) जैसे उम्मीदवारों को मैदान में उतारने के बावजूद कांग्रेस पांच चुनावों (1989, 1991, 1999, 2009 और 2014) में केवल दूसरे स्थान पर रही. 1991 में वाजपेयी लखनऊ चुनाव मैदान में उतरे और सीधे पांच बार जीत हासिल की, जिसमें वे तीन कार्यकाल (1996, 1998 और 1999) भी शामिल थे, जब वे पीएम चुने गए थे.

रामायण में भी है लखनऊ का जिक्र
2024 में होने वाले चुनाव में बीजेपी ने यहां से लगातार तीसरी बार राजनाथ सिंह को मैदान में उतारा है तो इंडिया गठबंधन ने रविदास मेहरोत्रा को अपना संयुक्त उम्मीदवार बनाया है. यह पहला मौका होगा, जब बीजेपी के खिलाफ विपक्ष ने इस सीट पर अपना संयुक्त उम्मीदवार उतारा है. लखनऊ बेहद प्राचीन शहर है और इसका जिक्र हिंदू महाकाव्य रामायण में भी मिलता है. ऐसा माना जाता है कि इसकी स्थापना भगवान राम के भाई लक्ष्मण की थी, बाद में मौर्य काल में भी यह शहर फला फुला. इस शहर ने मौर्य के अलावा गुप्त और मुगल बादशाहों का उत्थान और पतन भी देखा है. 16वीं सदी में यह शहर मुगल साम्राज्य के अधीन आ गया था

इतिहास में उल्लेख है कि आधुनिक लखनऊ की स्थापना 1775 में नवाब आसफउद्दौला ने की थी, उस वक्त इसका नाम अवध हुआ करता था. सन 1850 में लखनऊ के अंतिम मशहूर नवाब वाजिद अली शाह थे. इसके बाद ही अवध पर ब्रिटिश साम्राज्य का शासन शुरू हुआ जो 1947 तक जारी रहा. हालांकि नवाब आसफ उद्दौला और वाजिद अली शाह तक के दौर में इस शहर की वास्तुकला, भोजन और परिवेश पूरी दुनिया में मशहूर हो गए थे. यहां के नवाबों ने ऐसी भव्य इमारतें बनवाई जो आज भी पर्यटकों को अपनी ओर खींचती है.

इस लोकसभा क्षेत्र में पांच विधानसभा सीटें आती हैं, लखनऊ पश्चिम, लखनऊ उत्तरी, लखनऊ पूर्व, लखनऊ मध्य और लखनऊ कैंट. 2019 में हुए चुनाव के मुताबिक यहां कुल 19.37 लाख वोटर हैं, जिसमें से पुरुष मतदाता 11 लाख और महिला मतदाताओं की संख्या 9 लाख से अधिक है. लखनऊ के जातीय समीकरणों की बात करें तो यहां करीब 71 फीसदी आबादी हिंदू है, इसमें से भी 18 फीसदी आबादी राजपूत और ब्राह्मण समुदाय से है. यहां ओबीसी समुदाय की आबादी 28 फीसदी और मुस्लिम वोटरों की तादाद 18 फीसदी है. साल 2022 में हुए चुनाव में पांच विधानसभा सीटों में से तीन पर बीजेपी को जीत मिली थी.

दो बार हारे अटल, 1991 से लहराता रहा भगवा
इस सीट पर सबसे लंबे समय तक पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने जीत दर्ज की है. हालांकि दो बार उनको भी यहां से हार का सामना करना पड़ा. 1955 में उपचुनाव में जनसंघ के टिकट ने अटल यहां से लड़े, लेकिन जब नतीजे आए तो वे तीसरे स्थान पर रहे. इसी तरह से दूसरी बार 1957 में अटल बिहारी वाजपेयी जनसंघ की ओर से यहां चुनावी मैदान में उतरे तो वह फिर से दूसरे स्थान पर रहे. हालांकि इसके बाद 1991 में अटल बिहारी ने मध्य प्रदेश की विदिशा और उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लोकसभा चुनाव लड़ा, उन्होंने दोनों सीटें जीती थीं.

उन्होंने सांसद के तौर पर विदिशा से अपनी सीट छोड़ दी और लखनऊ सीट पर बने रहे. बस तभी ये यह सीट नेहरू परिवार छीन गई और यहां पर भगवा परचम लहराने लगा. 1991 से अटल यहां से लगातार पांच बार जीते और 2004 तक यहां से सांसद चुने गए. अटल बिहारी के बाद 2009 में लाल जी टंडन यहां से बीजेपी के उम्मीदवार रहे और करीब 40 हजार के अंतर से कांग्रेस की रीता बहुगुणा जोशी को शिकस्त दी. इसके बाद राजनाथ सिंह यहां पर जीत की हैट्रिक लगाने को तैयार है.

लखनऊ में कांग्रेस ने आखिरी बार 1984 में जीत दर्ज की थी, जिसके बाद कांग्रेस ने डॉक्टर करण सिंह, रीता बहुगुणा जोशी और प्रमोद कृष्णन को उम्मीदवार बनाया, लेकिन सभी को यहां पर बीजेपी के सामने हार का सामना करना पड़ा.

Related posts

Leave a Comment